Last modified on 16 सितम्बर 2009, at 19:36

संतूर बजा / कुमार रवींद्र

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:36, 16 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |संग्रह= }} <Poem> संतूर बजा केसर-घाटी ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

संतूर बजा
केसर-घाटी में दिन भर संतूर बजा

रहीं बहुत दिन इस घाटी में
साँसें ज़हरीली
और रहीं बरसों माँओं की
आँखें भी गीली

संतूर बजा शाहों के झगड़ों में
मरती रही प्रजा

सदियों रही गुलाबों की खुशबू
इस घाटी में
और सभी को गले लगाना था
परिपाटी में

संतूर बजा
इस कलजुग में इसी बात की मिली सज़ा

संतों पीरों की बानी के
वही हवाले हैं
सबने उनके अपने-अपने
अर्थ निकाले हैं

संतूर बजा
पुरखों ने था नेह राग इस पर सिरजा