नदी के किनारे
नन्हें पैरों को जोड़ कर
उस पर मिटटी को थाप
एक नन्हा सा घर बनाया था ..
सजाई थी
उसके चारो तरफ़
टूटी हुई टहनियां ..
कुछ रंग बिरंगे
कांच के टुकडे
और ..
रंगीन सपनो से
उसको सजाया था
टांगा था घर की छत्त पर
अपनी फ्राक की लैस को
विजय पताका समझ के
फ़िर कई रंगों से सजा
खिलखिलाता बगीचा
लगाया था ...
नन्ही आँखों में सपने
हाथो पर टिकी ठुड्डी
दिल में बस यही ख्याल
कि यह घर मेरा है .....
पर ...
तब न जाना था
कि मिटटी के घर
टूट जाया करते हैं
और रिश्ते यूँ ही
अधूरे छूट जाया करते हैं !!