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उम्मीद / दिविक रमेश

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समय ठहरता है तो जागती है उम्मीद
अँखुवाते ही ताकत उम्मीद की
काल हो जाता है रफूचक्कर।

बहुत दूर तक खुल जाते हैं रास्ते
पड़ाव हो उठते हैं दीप्त
लगता है ब्रह्माण्ड ही उतर आया हो
खुले रास्तों पर।
और मिट गया हो भेद
आदमी और देवता का।

एक आदमी निकल आता है
डग भरता
कद आकाश को भेद जाता है जिसका।

आकाश को भेदता आदमी
करता रहता है महसूस
कितने ही फूल, और सबसे खूबसूरत फूल आँसुओं के
ज़मीन से जुड़े अपने पाँवों पर।

यहीं से शुरू होती है यात्रा
जो एक राह में बदल जाती है आखिर
जुट जाते हैं जिसकी रक्षा में
तमाम नक्षत्र, ग्रह और तारे।

आकाश को भेदता आदमी
व्याप जाता है धरती में।

ताज्जुब है
लोग तब भी तलाशते रहते हैं आदतन
आदमी को आकाश में।