Last modified on 21 सितम्बर 2009, at 20:26

दृश्य घाटी में / ओम प्रभाकर

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:26, 21 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम प्रभाकर |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> बीत गए दिन ::फूल खि...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बीत गए दिन
फूल खिलने के।

होती हैं केवल वनस्पतियाँ
हरी-हरी-सी
हर गली
हर मोड़ पर बैठी
मौत अपनी बाँह फैलाकर।
बर्फ़-सा
जमता हुआ हर शख़्स
चुप्पियों में क़ैद हैं साँसें,
समय की नंगी सलीबों पर
गले में अटकी हुईं फाँसें,
लिख रहे हैं
लोग कविताएँ
नींद की ज्यों गोलियाँ खाकर।
बीत गए दिन
अब हवाओं में गन्धकेतु हिलने के
फूल खिलने के।

ढोती है काले पहाड़ दृष्टियाँ
सूर्य झर गए,
दृश्य घाटी में गहरे उतर गए,
बीत गए दिन
उठी बाँहों से बाँहों के मिलने के
फूल खिलने के।