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Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक: नया राष्ट्रगीत
  रचनाकार: श्रीकान्त जोशी
रोटी रोटी रोटी
बड़ी उम्र होती है जिसकी ख़ातिर छोटी-छोटी
रोटी रोटी रोटी।
जिनके हाथों में झण्डे हैं उनकी नीयत खोटी
रोटी रोटी रोटी। 

अपने घर में रखें करोड़ों बाहर दिखें भिखारी
सहसा नहीं समझ में आती ऐसों की मक्कारी
उधर करोड़ों जुटा न पाते तन पर एक लंगोटी
रोटी रोटी रोटी। 

शोर बहुत है जन या हरिजन सब मरते हैं उनसे
महाजनियों की छुपी हुक़ूमत में सब झुलसे-झुलसे
चेहरे पर तह बेशरमी की कितनी मोटी-मोटी!
रोटी रोटी रोटी। 

पैसों के बल टिका हुआ है प्रजातंत्र का खंबा
बिका हुआ ईश्वर रच सकता यह मनहूस अचंभा
जमा रहे हैं बेटा-बेटी, दौलत सत्ता-गोटी
रोटी रोटी रोटी। 

बर्फ़ हिमालय की चोटी की मुझको दिखती काली
काली का खप्पर ख़ाली है नाच रही दे ताली
मैं देता हूँ, वो ले आकर, मेरी बोटी-बोटी
रोटी रोटी रोटी।
बड़ी उम्र होती है जिसकी ख़ातिर छोटी-छोटी
जिनके हाथों में झण्डे हैं उनकी नीयत खोटी
रोटी रोटी रोटी।