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लखन लीला / शिवप्रसाद जोशी

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कोई मंच नहीं पोशाक न संवाद विलाप न मिलाप दुनिया के बेहद अदना कोने में है लखन लीला वहाँ अंधेरा है कॉलोनी में जिस जगह रहते हैं लखन और लीला मज़दूर दंपत्ति को हटाने की योजना बना रही है सोसायटी और उनके पाँच बच्चे भी हैं जिनमें बड़ी लड़की है...और उसकी चहक कॉलोनी में नोट की जाने लगी है उसका घूमना भी...लखन मज़दूरी करता है लीला घरों में काम करती है और पूरी कॉलोनी में उसका सिक्का चलता है ऐसे कि किसी न किसी को कोई काम पड़ ही जाता है उससे कॉलोनी के गणमान्य नहीं चाहते लखन लीला यहाँ रहे या वे यह चाहते हैं कि लीला आती रहे कहीं और से कॉलोनी को गंदा न करे जबकि लीला का काम ही बर्तन और फर्श और कपड़ो को साफ करने का उन्हें चमकाने का है सबकी लखन से भी यही दरकार है काम करे घरों की टूट-फूट ठीक करे सलाम करे वह ठेकेदार के साथ काम पर जाता है शाम को लौटता है नौकरी-पेशा की तरह कॉलोनी वाले इसे उसका ठसका मानते हैं उससे ख़फ़ा हैं जबकि वो बिल्कुल थका चूर-चूर आता है लगभग घिसटते हुए पूरी कॉलोनी का रास्ता पार कर सबसे नीचे खाली ज़मीन पर अपने झोंपड़े में जाता है अपने किसी लड़के को धूल मिट्टी में लोटता देखकर उसे खींचता हुआ लीला भी किसी घर से लौट रही होती है शाम के धुंधलके में लखन के पीछे-पीछे जाती दिखाई देती है उसकी लीला उसने पीले रंग का कुर्ता पहना है और उसे देखकर खीझ दिखाने वाले गौर से उसे देखते हुए जाते हैं झेंपते हैं नमस्ते साबजी कहती हुई जाती है जब लीला और लखन के पास पहुँचना चाहती है जल्द से जल्द।
कॉलोनी की इस सड़क पर सबसे ज़्यादा आवाजाही करने वाले लोग हैं लखन और लीला। और सड़क पर धूल जैसे यहाँ-वहाँ सबसे ज़्यादा बैठ रहे हैं उनके बच्चे।