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शिनाख़्त / शिवप्रसाद जोशी

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पानी में उसकी परछाई नहीं दिखती
आवाज़ में वो झलकता नहीं
यहाँ तक कि कपड़ों में भी नहीं हैं उसके निशान
संगीत में उसे पहचान पाना मुश्किल है
पेंटिंग में उसका कोई रंग नहीं
कविता में लिखकर नहीं आता
फिर भी वो रहता तो है ही

आँख में वो कहीं ठिठका हुआ है
भाषा में कहीं बैठा है छिप कर
विचार में उसका कोहराम है
तब भी एक पत्ता तक नहीं हिलता
कहीं कुछ नहीं टूटता

हवा बहती रहती है
फूल प्रकट होता है
एक स्त्री चलती जाती है चलती जाती है
उसके साथ चला जा रहा है
छूकर निकल जाएगा
या उसी के साथ रहेगा दुख।