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अनुताप / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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जहाँ हृदय में बाल्यकाल की कला कौमुदी नाच रही थी,
किरणबालिका जहाँ विजन-उपवन-कुसुमों को जाँच रही थी,
जहाँ वसन्ती-कोमल-किसलय-वलय-सुशोभित कर बढ़ते थे,
जहाँ मंजरी-जयकिरीट वनदेवी की स्तुति कवि पढ़ते थे,
जहाँ मिलन-शिंजन-मधुगुंजन युवक-युवति-जन मन हरता था,
जहाँ मृदुल पथ पथिक-जनों की हृदय खोल सेवा करता था,
आज उसी जीवन-वन में घन अन्धकार छाया रहता है,
दमन-दाह से आज, हाय, वह उपवन मुरझाया रहता है!