Last modified on 19 अक्टूबर 2009, at 19:29

तीसरे दिन / रमेश रंजक

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:29, 19 अक्टूबर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक }} {{KKCatNavgeet‎}} <poem> मुझे हर तीसरे दिन तीलियों…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुझे हर तीसरे दिन
तीलियों का पुल बुलाता है
शाम कहती है- कहो क्या बात है?
एक शीशा टूट जाता है

बिखर जाती हैं सितारों की तरह किरचें
(नंगे) पाँव डरते हैं
और उड़-उड़कर क़िताबों के नए पन्ने
मना करते हैं
बदन सारा कसमसाता है

धूल में मैली हुई है
पर न मैली हुई जो मन से
झाँकती है जब कभी तस्वीर वह
कभी खिड़की, कभी आँगन से
नींद की दो डोरियों के बँधे पाँवों में
कौन है जो थरथराता है ?
एक शीशा टूट जाता है।