विस्मृति तिमिर में दीप हो
भवितव्य का उपहार हो;
बीते हुए का स्वप्न हो
मानव हृदय का सार हो।
तुम सान्त्वना हो दैव की
तुम भाग्य का वरदान हो;
टूटी हुई झंकार हो
गत काल की मुस्कान हो।
उस लोक का संदेश हो
इस लोक का इतिहास हो;
भूले हुए का चित्र हो
सोई व्यथा का हास हो।
अस्थिर चपल संसार में
तुम हो प्रर्दशक संगिनी,
निस्सार मानस कोप में
हो मंजु हीरक की कनी।
दुर्दैव ने उर पर हमारे
चित्र जो अंकित किये,
देकर सजीला रंग तुमने
सर्वदा रंजित किये;
तुम हो सुधा धारा सदा
सूखे हुए अनुराग को;
तुम जन्म देती हो सजनि!
आसक्ति को वैराग्य को।
तेरे बिना संसार में
मानव हॄदय श्मशान है;
तेरे बिना हे संगिनी!
अनुराग का क्या मान है?