Last modified on 1 नवम्बर 2009, at 12:00

ह्रदय / अजित कुमार

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:00, 1 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अपने सरस, उदार ह्र्दय को
जितना भी सम्भव था , उतना उसने दुहा,
निचोड़ा
सत्व खींच लेने पर भी
जो शेष बचा होगा- वह भी ले लिया,
नहीं कुछ छोड़ा ,
फिर उस शुष्क ह्र्दय को उसने व्यर्थ मानकर
रिक्त उपेक्षा, तिक्त व्यथा से
तोड़ा और मरोड़ा
जो टपका वह लहू नहीं था…
रस की धारा थी, अमृत था,
जिसने क्षत-विक्षत घावों को भरा और
टूटे भावों को जोड़ा ।