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वर्जना / अजित कुमार

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शब्द मेरे गीत बन जाएँ, कथा का रूप धर लें,
नित्य के व्यवहार को अभिव्यक्ति दें या
शून्य में खो जांय—
तो क्या हुआ…
यह तो प्रकृति है उनकी, सहज है।
किन्तु मेरे शब्द ही यदि
तोड़कर धरती बना लें नींव
कर दें विलग उसको जो कि अबतक
एक ही भू-खण्ड था…
और फिर प्रत्येक अक्षर
ईट बनकर
जुड़े, ऊपर उठे औ ‘
प्राचीर बन जाए
बहुत ऊँची, अभेद्य, अपार:
मेरे औ ‘ तुम्हारे बीच—
जैसे चीन की दीवार—
तो फिर ?

--मृत्यु की-सी यातना होगी मुझे ।

शब्द उस प्राचीर को ही
बेघने के लिए निर्मित हुए हैं जो
घेरती है मन हमारा और जीवन भी:
विलग करती हमें है जो…

दो मुझे अभिशाप—
मेरे शब्द गूँजें नहीं,
बस, बाहर निकलकर नष्ट हो जाएँ,
अमरता के सुखों से रहें वंचित—
यदि कभी दीवार बनने के लिये आगे बढें ।

और चाहे जो करें
लेकिन विभाजक-रेख बनने के लिये तैयार मत हों,
स्वयं मेरे शब्द मेरी जिन्दगी को भार मत हों,
शब्द तो सम्बन्ध हैं :व्यवधान वे डालें नहीं ।