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नवागन्तुक / अजित कुमार

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पहले सूने में मधुॠतु का संचार हुआ ।
झुलसी धरती पर घास उगी,
कुछ फूल खिले ।
कोयल ने चुपके से आकर गुंजार किया,
तिनके ला-लाकर नीड़ बनाया । रस बरसा ।
पोखर में जल थिरका,
झूमे तृण-तरू, सिहरे पल्लव ।

धीरे-धीरे दूरागत ध्वनियाँ निकट हुई ।

अब मेला फिर जुड़ आया है ।
फिर धूलिगंध से आलोकित सारा दृग-पथ,
फिर वही पायलों और घटियों की रुन-झुन ।
वह रंगबिरंगा ध्वज ऊँचे पर फहराता ।
कोलाहल को सार्थक करती शंखध्वनि
की छाया में फिर
उमड़ा आता है जनसागर ।

इन सबके बीच एक नन्हा-सा देवकुँवर
आश्वस्त, अकुंठित, धीर, मग्न
विचरण करता
लो, ठहर गया है देख दुकान खिलौनो की-

यह बुड्ढा है- सिर हिला रहा धीरे-धीरे ।
आपस में कैसा झगड़ रहीं वे दो बुढियाँ ।
दो पहरेदार पुकार रहे-से – ‘हटो, बचो ।
छोड़ दो राह ।‘
कितनी प्यारी, गोरी सूरत उस नारी की ।
वह पुरुष : पितावत, फिर भी बच्चों-सा कातर ।
कितने गुड्डे, कितनी गुड़ियाँ …

सब उसका ही मुँह जोह रहे ।
कहते-से ‘हमको छूकर आभा से भर दो,
जीवित कर दो ।‘

वह नन्हा देवकुमार हँसा।
बोला- ‘अच्छा, ऐसा ही हो ।‘

कैसा विस्मय । कितना अचरज ।
अगले क्षण ही
इन पुतलों और खिलौनों की दुनिया में
वह आ मिला …
उन्हीं-जैसा बनकर ।


पहरेदारों का बिगुल बजा- ‘स्वागत । स्वागत ।‘
बूढे चेहरे खिल उठे,
मिटी कातरता,
मूरत मुस्काई ।

गूँजती गई शंखध्वनि,
मेला और उमड़ता,
और उमड़ता रहा ।