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मुम्बाई दर्शन / अनूप सेठी

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अचानक कुछ हुआ और बस छोड़ दी
ठोकर मारी फ्रूटी की हरी डिबिया उछली
जहाँ गिरी कबूतर उड़ा वहां से

वहाँ बहुत सारे कबूतर उठते थे बैठते थे
लोग दाना डालते थे
चुँधियाती ग्राहकों को उकसाती
दुकानों में से पैदल चल निकला
बदहवास फलांगा बाजार

रिहायशी शांत सी आबादी आई
शहर में जैसे पहली बार शाम हो रही थी
मकानों के ऊपर निर्लिप्त धूसर चांद था
लोग चले जा रहे थे
किशोर किशोरियां साइकिलें टनटनाते गुजर रहे थे
संकरे से मैदान में छोकरे क्रिकेट खेल रहे थे
फुटपाथ पर गृहस्थियों के चूल्हे जलने लगे थे

ऐसी ही थी पर यह मेरी कालोनी नहीं थी
पसीना आया पैरों में पानी पड़ गया

जैसे ही अपनी बस दिखी
आक्रामक तन गए हाथ पांव
संकरे दरवाजे में
लोगों के सिरों बाहों थैलों के बीच
घुसेड़ दिया सिर नेवले की तरह
कई लोग पीछे थे गिरने से बचाने को

यूँ बीच रास्ते में जोखिम उठाना
बस छोड़ने का दुनिया देखने का
आसान है भला!
                     (1990)