इसी कक्ष में, यही लेखनी ले कर इसी प्रकार
बैठा मैं कविता लिखने को जाने कितनी बार।
यहीं इसी पाषाण पट्ट पर, खोल हृदय के द्वार
खेली मेरी काव्य कल्पना निर्भय, निर्लंकार।
मेरी काव्यकल्पना ही-सी धीरे से चुपचाप,
जब-तब तू अज्ञात भाव से आकर अपने आप,
पीछे खडी हुई कुछ क्षण तक, रह नीरव निस्पंद,
हँस पड़ती थी पकड़ चोर सा खिल खिल कर सानंद।
पीछे मुड़कर, तुझे देख कर, देखूँ फिर इस ओर
छिप जाता था हृदय गुहा में कहीं मानषी-चोर!
उसी तरह इस उसी ठौर फिर बैठा हूँ मैं आज
कौन देखता है यह, क्या क्या बदल गये हैं साज।
आ न सकेगी किंतु आज तू उसी भाँति साह्लाद,
लिखने मुझे नहीं देती बस, आ कर तेरी याद।
तो फिर उस तेरी स्मृति से ही करके मौनालाप,
आज और कुछ नहीं लिखूंगा रुक कर अपने आप।