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पत्र / सियाराम शरण गुप्त

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छिन्न-भिन्न यह एक पत्र इस मुक्त पवन में
उड़ गिर कर फड़फड़ा रहा है, निभृत भवन में।
यह समीर उस दूर लोक से आया है क्या;
अलख करों से कुशलपत्र यह लाया है क्या!
हस्ताक्षर कुछ दीख रहे हैं इस पर तेरे
आज कौन से नई बात लाया यह मेरे
निकट कौन सी नई वेदनागाथा कह कह
चंचल हो कर पत्र काँप उठता यह रह रह
कहाँ गया वह दिवस नहीं कुछ पता ठिकाना
जिस दिन तूने पत्र लिखा था यह मनमाना
रख कर सम्मुख दीप; मंद जिसका प्रकाश था,
जिसके भीतर निहित नियति का कुटिल हास था
पीछे से सहचरी, भित्ति पर तेरी छाया
देख रही थी खडी खडी लेखन मनभाया
लोल लटों को यही पवन करके विलोल तर
उडा उडा कर डाल रहा था युग कपोल पर
एक हाँथ से उन्हें ठीक कर कर तू इसको
लिखती थी।

अब हाय! आज पूछूँ मैं किसको,
उस दिन तू लिख गयी कौन सी गूढ कथा थी;
लिख कर यह रख गई कौन सी मनोव्यथा थी?