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प्यास की आग / अली सरदार जाफ़री

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मैं कि हूँ प्यास के दरिया की तड़पती हुई मौज
पी चुका हूँ मैं समन्दर का समन्दर फिर भी
एक-इक क़तरा-ए-शबनम को तरस जाता हूँ
क़तरःए-शबनमे-अश्क
क़तरःए-शबनमे-दिल, ख़ूने-जिगर
क़तरःए-नीम नज़र
या मुलाक़ात के लम्हों के सुनहरी क़तरे
जो निगाहों की हरारत से टपक पड़ते हैं
और फिर लम्स के नूर
और फिर बात की ख़ुशबू में बदल जाते हैं
मुझको यह क़तर-ए-शादाब भी चख लेने दो
दिल में यह गौहरे-नायाब भी रख लेने दो
ख़ुश्क हैं होंट मिरे, ख़ुश्क ज़बाँ है मेरी
ख़ुश्क है दर्द का, नग़मे का गुलू<ref>कण्ठ</ref>
मैं अगर पी न सका वक़्त का यह आबे-हयात
प्यास की आग में डरता हूँ कि जल जाऊँगा

शब्दार्थ
<references/>