कांच,कंकरीट और कंचन की इस लंका में
चलते हुए
लंका-दहन का सत्य भी याद रखना
और रखना याद
कि यात्रा के पहले चरण में
तुम भी रामायण थे
हे यात्री !
भूलना मत
कि राग-प्रभाती के पहले स्वर संग
तुम नंगे पांव चले थे
तब तुमने
वातानुकूलित वाहनों
पांचतारा स्नानागारों
लुभावने बिछावनों
और लिपटाने ओढ़नों की कामना नहीं की थी
चलने
चलने
और चलने वाले पथिक
अशो के पेड़ों तले पहुंचते ही
तुम अ-शोक हो जाना
ज़रूर मुस्कुराना
मुसकराना---मगर याद रखना
कि स्वर्ण लंका के नरक में भी
उस वनवासिनी ने
मन के मुक्त भाव का
सौदा नहीं किया था
संन्यास के बदले
साम्राज्य नहीं सहेजा था
याद रहे यात्री
कि तुम्हारी यात्रा का लक्ष्य
राजप्रसाद नहीं
कुटिया जैसा कोई घर है
तुम्हारी मंज़िल
नगर नहीं
वन है
मस्तिष्क नहीं
मन है
सागर नहीं
पर्वत है
और यह भी
कि अंतरिक्ष रास्तों को रोशन रखने के लिए
एकमात्र शर्त होती है
हृदय में दहकती सच्चाई
ये पथिक !
पथिक हे !
उसी धधकते सत्य को
मस्तक में
बीचों-बीच जलाकर
कांच,कंकरीट और कंचन की इस लंका में
चलते हुए याद रखना
कि यात्रा के पहले चरण में
तुम भी राममय थे