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इन राजपथी रास्तों पर
कितने सारे शहरों को मैंने
आंखों में बंद किया
उनकी एक जैसी, पर विभिन्न रातों को
बाहों में लिया
चमकीलेऔर धुंधले सवेरों को
मुट्ठियों में भींचा

इन खुले रास्तों पर
कितने लोगों का मोह
मैंने अपनी बनियान के करीब
धड़कता महसूस किया
कितने कोमल, रूखे हाथों की पकड़
गले में नमी बन उतर गई

हर बार लगा
कि रिश्तों का अर्थ
कुछ नहीं
सिवा सहज वेदना की पहचान के


फिर भी
हर बार, जब मैंने
धूप
परछाईं
धुंध
अंधेरे
या रोशनी में रचकर देखा
घर का दरवाज़ा बाहें फैलाए खड़ा था।