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रे मन / सोहनलाल द्विवेदी

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रचना संदर्भरचनाकार:  सोहनलाल द्विवेदी
पुस्तक:  वासंतीप्रकाशक:  इंडियन प्रेस प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद
वर्ष:  पृष्ठ संख्या:  

प्रबल झंझावत में तू
बन अचल हिमवान रे मन।

हो बनी गम्भीर रजनी,
सूझती हो न अवनी,
ढल न अस्ताचल अतल में
बन सुवर्ण विहान रे मन।

उठ रही हो सिन्धु लहरी
हो न मिलती थाह गहरी
नील नीरधि का अकेला
बन सुभग जलयान रे मन।

कमल कलियाँ संकुचित हो,
रश्मियाँ भी बिछलती हो,
तू तुषार गुहा गहन में
बन मधुप की तान रे मन।