नायकी कान्हड़ा / असद ज़ैदी

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नायकी कान्हड़ा की द्रुत गत
सुनकर मैं झाँकता हूँ
एक सूने मकान के अन्दर
दालान खाली था
जीने पर जमा था
कई मौसमों का गुबार

अन्दर घुसता हूँ
तो आवाज़ बन्द हो जाती है
आती सुनायी देती है
खाली टेप की-सी घिसघिसाहट

यहाँ न हवा थी
न कोई बेकल आत्मा
शायद था मेरी
अपनी ही पोशाक का हाहाकार।

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