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वासंती चांद / इला कुमार

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डालियों के बीच उलझा हुआ ये वासन्ती चांद,
रेशे-रेशे खोल जाता यादों के किवाड़
अभी भी, मन, भटकता है,
उन्हीं वीथियों में,
थमकर, जहाँ तुमने संवारी थी झुकी लट,
पेशानी की

अब भी, ज्यों, झनझना जाती
शरद भींगी रात
जब कभी ऊपर से उड़ी बगुलों की धवल पांत
रूक गयी, वहीँ मैं
देखा, थमकर पीछे,
नहीं,

नहीं आता कोई दबे पांव सधे क़दमों से,
डराने को मुझे शरद भींगी रातों में
बादाम के पत्तों के पीछे छिपे झुके
रेशमी उलझनों को सुलझाने,

बीतकर भी बीता नहीं ज्यों,

जब कभी उलझ जाता चाँद,
नरम कोंपलों भरी शाखों के बीच
वहीं उलझने थाम लेतीं हैं मेरी हलचलों को सिहरनों
को,
आ जाती वही
सुर्ख, सेमल फूलों की बरसात,

बरस बीते कि दिन
बदलता नहीं ये हिया
पुकारता ज्यों "पिया, पिया, पिया"