प्राणों के अन्तिम पाहुन!
चांदनी-धुला, अंजन सा, विद्युतमुस्कान बिछाता,
सुरभित समीर पंखों से उड़ जो नभ में घिर आता,
वह वारिद तुम आना बन!
ज्यों श्रान्त पथिक पर रजनी छाया सी आ मुस्काती,
भारी पलकों में धीरे निद्रा का मधु ढुलकाती,
त्यों करना बेसुध जीवन!
अज्ञातलोक से छिप छिप ज्यों उतर रश्मियां आती,
मधु पीकर प्यास बुझाने फूलों के उर खुलवातीं,
छिप आना तुम छायातन!
कितनी करुणाओं का मधु कितनी सुषमा की लाली,
पुतली में छान धरी है मैने जीवन की प्याली,
पी कर लेना शीतल मन!
हिम से जड़ नीला अपना निस्पन्द हृदय ले आना,
मेरा जीवनदीपक धर उसको सस्पन्द बनाना,
हिम होने देना यह मन!
कितने युग बीत गए इन निधियों का करते संचय,
तुम थोड़े से आँसू दे इन सबको कर लेना क्रय,
अब हो व्यापार-विसर्जन!
है अन्तहीन लय यह जग पल पल है मधुमय कम्पन,
तुम इसकी स्वरलहरी में धोना अपने श्रम के कण,
मधु से भरना सूनापन!
पाहुन से आते जाते कितने सुख के दुख के दल,
वे जीवन के क्षण क्षण में भरते असीम कोलाहल,
तुम बन आना नीरव क्षण!
तेरी छाया में दिव को हँसता है गर्वीला जग,
तू एक अतिथि जिसका पथ है देख रहे अगणित दृग,
सांसों में घड़ियाँ गिन गिन।