सजनि तेरे दृग बाल!
चकित से विस्मृति से दृगबाल—
आज खोये से आते लौट,
कहाँ अपनी चंचलता हार?
झुकी जातीं पलकें सुकुमार,
कौन से नव रहस्य के भार?
सरल तेरा मृदु हास!
अकारण वह शैशव का हास—
बन गया कब कैसे चुपचाप,
लाजभीनी सी मृदु मुस्कान।
तड़ित सी जो अधरों की ओट,
झाँक हो जाती अन्तर्धान।
सजनि वे पद सुकुमार!
तरंगों से द्रुतपद सुकुमार—
सीखते क्यों चंचलगति भूल,
भरे मेघों की धीमी चाल?
तृषित कन कन को क्यों अलि चूम,
अरुण आभा सी देते ढाल?
मुकुर से तेरे प्राण,
विश्व की निधि से तेरे प्राण—
छिपाये से फिरते क्यों आज,
किसी मधुमय पीड़ा का न्यास?
सजल चितवन में क्यों है हास,
अधर में क्यों सस्मित निश्वास?