Last modified on 10 नवम्बर 2009, at 01:10

अश्वमेध / आशुतोष दुबे

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:10, 10 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उसकी धौंकनी से दम फूलता है इच्छाओं को

स्वप्न उसकी टापों में लगातार बजते हैं
वह एक कौंध की तरह गुज़रता है
पण्य-वीथियों में श्रेष्ठि उसे मुँह बाए देखते हैं

हर गुज़रते लक्ष्य के साथ
सुनहरी होती जाती है उसकी अयाल
वह अधिक रम्य होता जाता है
और अधिक काम्य

संभव नहीं रहता उस
सदेह चुनौती की ताब में ला पाना
पुरवासियों की श्वासलय उखड़ने लगती है
जैसे गिरती हो गरज के साथ बिजली
और ठठरी हो जाता है सब्ज पेड़
ऐसे कूदता है वह
मल्टी नेशनल की आठवीं मंज़िल से
सात समंदर पार धुर देहात में
और घास के बजाए चबाने लगता है नीम

देखते-देखते स्वाद बदलने लगते हैं अर्थ
ताज्जुब के लिए बहुत देर हो चुकती है
बात की बात में ढह जाते हैं दुर्जय किले
गर्दन का खम किसी का साबुत नहीं बचता

पीछे-पीछे आते हैं प्रधान ऋत्विज
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सीढ़ियाँ उतरकर
राजपुरुष, सेनानायक और वित्तमंत्री के दूत
न्यौतते हैं पुरवासियों को यज्ञभूमि में
पुण्य और प्रसाद पाने के लिए

पता नहीं कब, कौन थामेगा
इस साक्षात गति की वल्गाएँ
बाँधा जाएगा किस यूप से
किन तलवारों से छुआ जाएगा
कौन लेगा आहुति की धूम्रगंध विधिपूर्वक

अभी तो यह नाप रहा है समूची पृथ्वी
चमक रही हैं इसकी आँखें
जिधर से भी गुज़रता है
वनस्पतियाँ झुलस जाती हैं
गाढ़ा हो जाता है लालसा का रंग
चारण विजयगीत गाते हैं

कुछ न कुछ बदल ही जाता है
सबके भीतर