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सिर पर आग (कविता) / कैलाश गौतम

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सिर पर आग

पीठ पर पर्वत

पाँव में जूते काठ के

क्या कहने इस ठाठ के।।


यह तस्वीर

नयी है भाई

आज़ादी के बाद की

जितनी कीमत

खेत की कल थी

उतनी कीमत

खाद की

सब

धोबी के कुत्ते निकले

घर के हुए न घाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।


बिना रीढ़ के

लोग हैं शामिल

झूठी जै-जैकार में

गूँगों की

फरियाद खड़ी है

बहरों के दरबार में

खड़े-खड़े

हम रात काटते

खटमल

मालिक खाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।


मुखिया

महतो और चौधरी

सब मौसमी दलाल हैं

आज

गाँव के यही महाजन

यही आज खुशहाल हैं

रोज़

भात का रोना रोते

टुकड़े साले टाट के

क्या कहने इस ठाठ के।।