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आँसू / श्रीकृष्ण सरल

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लेखक: श्रीकृष्ण सरल

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जो चमक कपोलों पर ढुलके मोती में है

वह चमक किसी मोती में कभी नहीं होती,

सागर का मोती, सागर साथ नहीं लाता

अन्तर उंडेल कर ले आता कपोल मोती।


रोदन से, भारी मन हलका हो जाता है

रोदन में भी आनन्द निराला होता ह,

हर आँसू धोता है मन की वेदना प्रखर

ताजगी और वह हर्ष अनोखा बोता है।


आँसू कपोल पर लुढ़क-लुढ़क जब बह उठते

लगता हिम-गिरि से गंगाजल बह उठता है,

हैं कौन-कौन से भाव हृदय में घुमड़ रहे

हर आँसू जैसे यह सब कुछ कह उठता है।


सन्देह नहीं, आँसू पानी तो होते ही

वे तरल आग हैं, और जला सकते हैं वे,

उनमें इतनी क्षमता भूचाल उठा सकते

उनमें क्षमता, पत्थर पिघला सकते हैं वे।


आँसू दुख के ही नही, खुशी के भी होते

जब खुशी बहुत बढ़ जाती, रोते ही बनता,

आधिक्य खुशी का, कहीं न पागल कर डाले

अतिशय खुशियों को, रोकर धोते ही बनता।


भावातिरेक से भी रोना आ जाता है

ऐसे रोदन को कोई रोक नहीं पाता,

रोने वाला, निस्र्पाय खड़ा रह जाता है

आगमन आँसुओं का, वह रोक नहीं पाता।


जो व्यक्ति फफक कर जीवन में रोया न कभी

उसके जीवन में कुछ अभाव रह जाता है,

दुख प्रकट न हो, भारी अनर्थ होकर रहता

रो पड़ने से, वह सारा दुख बह जाता है।


इतिहास आँसुओं ने रच डाले कई-कई

हो विवश शक्ति उनने अपनी दिखलाई है,

वे रहे महाभारत की संरचना करते

सोने की लंका भी उनने जलवाई है।