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पसोपेश में / प्रताप सहगल

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रचनाकार : प्रताप सहगल


पसोपेश में हूँ

कि कविता चिह्नों में होती है

या प्रतीकों में

बिम्बों में होती है

होती है मिथकों में

या फिर कुछ तारीखों में


पसोपेश में हूँ

कि कविता आवेग में होती है

या विचार में

कहीं दर्शन की गुत्थियों में होती है

कविता

या किसी के तरंगी व्यवहार में


पसोपेश में हूँ

कि कविता

कहीं जंगल की अंधेरी और रहस्यमय

कंदराओं में होती है

या किसी पेड़ की टहनी पर खिले एक

फूल में

कविता छिपी है किसी तलहटी की

सलवटों

या किसी तालाब की तलछट में
या विराजती है 

हिमशिखर पर उग आए किरीट-शूल में


पसोपेश में हूँ

कि कविता संशिलष्ट चेहरों के

पीछे है

या चेहरों पर फ़ैली है नकाब बनकर

कविता अक्स है अन्दर की किसी

भंवर का

या खड़ी है ठोस सतह पर

हिजाब बनकर


पसोपेश में हूँ

कि कविता आग में होती है

या आग की लपट में

होती है कविता माँ की दूधिया रगों में

या मौके-बे-मौके की डांट-डपट में


पसोपेश में हूँ

कि कविता सौंदर्य-शास्त्र है

या सौन्दर्य के पिरामिड पर बैठी

शातिर बाघिन

या

फिर एक मासूम गिलहरी