इन आँखों ने देखी न राह कहीं,
इन्हें धोगया नेह का नीर नहीं;
करती मिट जाने की साध कभी,
इन प्राणों को मूक अधीर नहीं;
अलि छोड़ी न जीवन की तरिणी,
उस सागर में जहां तीर नहीं!
कभी देखा नहीं वह देश जहां,
प्रिय से कम मादक पीर नहीं!
जिसको मरुभूमि समुद्र हुआ,
उस मेघव्रती की प्रतीति नहीं;
जो हुआ जल दीपकमय उससे,
कभी पूछी निबाह की रीति नहीं;
मतवाले चकोर से सीखी कभी,
उस प्रेम के राज्य की नीति नहीं;
तू अकिंचन भिक्षुक है मधु का,
अलि तृप्ति कहाँ जब प्रीति नहीं!
पथ में नित स्वर्ण-पराग बिछा,
तुझे देख जो फूली समाती नहीं;
पलकों से दलों में घुला मकरन्द,
पिलाती कभी अनखाती नहीं
किरणों में गुँथीं मुक्तावलियाँ,
पहनाती रही सकुचाती नहीं;
अब भूल गुलाब में पंकज की,
अलि कैसे तुझे सुधि आती नहीं!