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मन्दिर / रामधारी सिंह "दिनकर"

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जहाँ मनुज का मन रहस्य में खो जाये,
जहाँ लीन अपने भीतर नर हो जाये,
भूल जाय जन जहाँ स्वकीय इयत्ता को,
जहाँ पहुँच नर छुए अगोचर सत्ता को।
धर्मालय है वही स्थान, वह हो चाहे सुनसान में,
या मन्दिर-मस्जिद में अथवा जूते की दूकान में।