Last modified on 17 नवम्बर 2009, at 04:38

समुद्र-3 / पंकज परिमल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:38, 17 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंकज परिमल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> नदी को बेशक समुद्र…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

नदी को बेशक
समुद्र तक ही जाना हो
पर उसे इतनी तो आजादी है ही
कि वह रास्ता बदल ले
पुराने तटों को छोड़कर
नए तटबंध बना ले
या किसी विरोधी स्वभाव की नदी से भी
गठजोड़ कर ले
समुद्र को तो
सब तरह की व सब दिशाओं की
नदियों की बदमाशियां
सहन करनी ही हैं
नदियों को यह भी आजादी थी
कि वे धारा सोखकर
संन्यास लेकर भूमिगत हो जाएं
और समुद्र तक न जाएं
समुद्र को तो भूमिगत होने की भी
आजादी नहीं थी
मरने की भी नहीं
प्रोटोकाल की लंबी-चौड़ी व्यवस्था थी
यह सुनिश्चित करने के लिए
कि उसे एक छींक के बाद
दूसरी छींक भी न आए
नदियां
और नदियों ने जो पाल रखे थे
कछुए, मगरमच्छ
और समुद्र के पानी में होती थीं स्वभावत:
बड़ी-बड़ी व्हेलें और दरियाई घोड़े
समुद्र को इन सबकी
धमाचौकड़ियों और स्वच्छंद आचरण के लिए
गरिमा के साथ चुपचाप रहना ही है