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शाख़े-निहाले-ग़म / फ़राज़

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शाख़े-निहाले-ग़म<ref>रंज अर्थात दु:ख के
 पौधे की डाली</ref>

मैं एक बर्गे-ख़िज़ाँ <ref>पतझड़</ref>की मानिंद<ref>भाँति</ref>
कब से शाख़े-निहाले-ग़म पर
लरज़<ref>काँप</ref> रहा हूँ
मुझे अभी तक है याद वो जाँफ़िग़ार<ref>घायल-प्राण</ref> साअत<ref>क्षण</ref>
कि जब बहारों की आख़िरी शाम
मुझसे कुछ यूँ लिपट के रोई
कि जैसे अब उम्र-भर न देखेगा
हम में एक दूसरे को कोई
वो रात कितनी कड़ी थी
जब आँधियों के शबख़ूँ <ref>रात के अँधेरे में शत्रु-दल पर सेना के आक्रमण</ref>से
बू-ए-गुल<ref>पुष्प-गंध</ref> भी लहू-लहू थी

सहर<ref>प्रात:</ref> हुई जब तो पेड़ यूँ ख़ुश्को-ज़र्द-रू <ref>सूखा व पीला चेहरा
</ref>थे
कि जैसे मक़्तल<ref>वध-स्थल्</ref> में मेरे बिछड़े हुए रफ़ीक़ों<ref>मित्रों</ref> की
ज़ख़्मख़ुर्दा<ref>घायल</ref> बरहना <ref> नंगी</ref>लाशें
गड़ी हुई हों
मैं जानता था
कि जब ये बोझल बुलंद अश्जार<ref>वृक्ष का बहुवचन</ref>
जिनकी कुहना<ref>प्राचीन</ref> जड़ें ज़मीं की अमीक़<ref>अथाह</ref> गहराइयों में बरसों से जागुज़ीं<ref>घोर कष्टदायक</ref> थी
हुजूमे-सरसर<ref>आँधियों की भीड़</ref> में चंद लम्हे ये एस्तादा<ref>सीधे खड़े</ref> न रह सके तो

मैं एक बर्गे-ख़िज़ाँ भी
शाख़े-निहाले-ग़म पर रह सकूँगा
वो एक पल था कि एक रुत थी
मगर मिरे वास्ते बहुत थी
मुझे ख़बर है कि कल बहारों की अव्वलीं<ref>प्रथम</ref> सुब्ह
फिर से बे-बर्गो-बार शाख़ों<ref>फलों और पत्तों के बग़ैर टहनियों </ref> को
ज़िंदगी की नई क़बाएँ<ref>आवरण</ref> अता<ref>प्रदान</ref> करेंगी
मगर मिरा दिल धड़क रहा है
मुझे, जिसे आँधियों की यूरिश<ref>आक्रमण</ref>
ख़िज़ाँ<ref>पतझड़</ref> के तूफ़ाँ न छू सके थे
कहीं नसीमे-बहार<ref>पतझड़</ref> शाख़े-निहाले-ग़म<ref>रंज के पौधे की डाली</ref> से
जुदा न कर दे.

शब्दार्थ
<references/>