जानती थी
कि कभी हमारी राहें दुबारा टकराएंगीं
चाहती थी
तुम्हें कविता में भूल जाऊँ
भूलती-भूलती भुलक्कड़ सी इस ओर आ बैठी
जहाँ तुम्हारी डगर को होना था ।
यहाँ तुम्हारी यादें तक बूढ़ी हो गई हैं
इस मोड़ पर से गुज़रने में उन्हें लंबा समय लगता है
उनमें नहीं चिलचिलाती धूप में जुलूस से निकलती
पसीने की गंध ।
तुम्हारे लफ्ज़ थके हुए हैं
लंबी लड़ाई लड़ कर सुस्ता रहे हैं
मैं अपनी ज़िद पर चली जा रही हूँ
चाहती हुई कि एकबार वापस बुला लो
कहीं कोई और नहीं तो हम दो ही उठाएंगे
कविताओं के पोस्टर ।
मैं मुड़ कर भी नहीं देखती
कि तुम तब तक वहाँ खड़े हो
जब तक मैं ओझल नहीं होती ।
लौटकर अंत में देखती हूँ
हमारे बीच मौजूद है
एक कठोर गोल धरती का
उभरा हुआ सीना ।