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संकल्प / नरेन्द्र शर्मा

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अग्नि का कर आचमन संकल्प कर, मानव,
तर अनल के सिन्धु भी बढ़ता चलेगा तू!
तू नहीं वह चीज़ जो जल ख़ाक हो जाए,
नित्य निखरेगा, मनुज, जितना जलेगा तू!

मिस्र चीन सुमेरु बाबुल, बुलबुले तेरे;
सभ्यता के स्रोत, मनु! कैसे रुकेगा तू?
झुका तेरे सामने था वृद्ध विन्ध्याचल,
विघ्न-बाधा देख अब कैसे झुकेगा तू?

बहुत सी मंज़िल हुई हैं पार, देखे
बहुत से बटमार, फिर उनसे लड़ेगा तू!
चेतना हो मूर्त तुझमें सँवरने आई,
क्या न मिट्टी से कनक-प्रतिमा घड़ेगा तू?

यहाँ कौन अयुद्ध है? कटिबद्ध हो, मानव!
अब मनुज ही देव तेरा, मनुज ही दानव!