गीत रच कर जब उठा तब स्वप्न बोले—’और बोलो’,
कृष्ण की कालिन्दिनी बोली—’उमड़’ मुझमें डुबो लो!
प्रणय से मीठी मधुर! जब बेड़ियाँ झंकार उट्ठीं
शूलियों ने माँग भर कर कहा, जी में प्यार घोलो।
मैं पथिक युग के जुएँ में दाँव खाकर, स्वप्न धोकर,
आज दिल्ली के किले में तीन जलते दीप बोकर,
सहस अग्नि-स्फुलिंग, बंधन में बँधे, असहाय लख कर,
और चालिस कोटि-वासिनि को निपट वन्ध्या निरख कर—
कह रहा हूँ, हाय तीर--
कमान भी बोझिल हुए!
आज चालिस कोटि के
पशु-प्राण भी बोझिल हुए!
अब न युग से कह सकोगे क्यों लगा दी आग घर में?
गाँव मुर्दों का उजाड़ा, क्यों जगा दी आग घर में?
आज आँखों का नशा चढ़-चढ़, भुजा पर बोलता है,
और अमरों की अखण्ड वसुन्धरा पर डोलता है!
और यह तारुण्य है, ठिठका,--तमाशा देखता है,
जोश में आया कि लिख डाला—“महान विशेषता है!”
प्राण देकर, प्राण लेकर, प्राण का खिलवाड़ सीखें,
हम अपाहिज हैं न, जो माँगें जगत से और भीखें।
पूर्वजों के गीत झूठे
किये प्राणों को बचाकर,
रोटियों के राग गाये,
क्षुधित पुतलों को नचाकर।
बाढ़ आई निम्नगाओं में, न हममें बाढ़ आई;
ग्रीष्म ये लाईं न आँखें, ये फक़त आषाढ़ लाईं!
चल ’सियार किशोर’ सिंहों का ’किले’ में मरण देखें,
तेज भाषा बोल, सब वीरत्व का, आवरण देखें!
और फिर चुपचाप, नौकर हो, भरेगा पेट अपना!
“पीढ़ियाँ बन्धनमयी हैं” भूल वह निःसार सपना!!
प्राण का धन, तू छुपाये रह अमर रंगरेलियों में,
भूल जा माँ बन्दिनी को रोज की अठखेलियों में!
किन्तु अब उस क्षितिज पर
बेमूँछ की सेना निरख तू,
और अपने प्रणय के शव
प्रलय-रथ के तले रख तू।
मातृ-भू के बोझ, जिस दिन सूलियों ने प्राण पाया!
उस दिवस भी क्या तुझे भारत अखण्ड न याद आया?
याद भर आता रहे यह लाल टीका+!
तरुण अपनाता रहे यह लाल टीका!!
रचनाकाल: खण्डवा-१९४५
+जब दिल्ली के लाल किले में, आज़ाद हिन्द के सैनिकों पर मुकदमा चल रहा था।