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मोनालीसा और मैं... / रंजना भाटिया

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जब भी देखा है दीवार पर टँगी
मोनालीसा की तस्वीर को
देख कर आईने में ख़ुद को भी निहारा है
तब जाना कि ..
दिखती है उसकी मुस्कान
उसकी आँखों में
जैसे कोई गुलाब
धीरे-से मुस्कराता है
चाँद की किरण को
कोई हलका-सा 'टच' दे आता है
घने अँधेरे में भी चमक जाती है
उसके गुलाबी भिंचे होंठों की रंगत
जैसे कोई उदासी की परत तोड़ के
मन के सब भेद दिल में ओढ़ के
झूठ को सच और
सच को झूठ बतला जाती है
लगता है तब मुझे..
मोनालीसा में अब भी
छिपी है वही औरत
जो मुस्कारती रहती है
दर्द पा कर भी
अपनों पर ,परायों पर
और फिर
किसी दूसरी तस्वीर से मिलते ही
खोल देती है अपना मन
उड़ने लगती है हवा में
और कहीं की कहीं पहुँच जाती है
अपनी ही किसी कल्पना में
आँगन से आकाश तक की
सारी हदें पार कर आती है
वरना यूँ कौन मुस्कराता है
उसके भीचे हुए होंठो में छिपा
यह मुस्कराहट का राज़
कौन कहाँ समझ पाता है !!