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कामना / शैलेन्द्र चौहान

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कितनी गहरी रही ये खाई

मन काँपता डर से

अतल गहराइयाँ मन की

झाँकने का साहस कहाँ

दूर विजन एकांत में

सरिता कूल सुहाना दृश्य कैसा

नीम का वृक्ष

चारों ओर से गहरी खाई

काली सिंध बह रही मंथर

बीहड़ खाइयाँ

परिंदे पी पानी तलहटी का

आ बैठते नीम की टहनियों पर


बड़ी मुश्किल से

हम खाइयों के भय से पीछा छुड़ाते

किलोल करते ये परिंदे

हम को चिढ़ाते

चींटियाँ रेंगती भू-भाग पर

समझतीं प्राणियों को भी पेड़-पौधे

चढ़ती और गुदगुदा जिस्म पा

काट लेतीं त्वचा को

किनारे नदी के

भेड़ बकरियों का झुंड

साथ चरवाहा

नहाता नदी में निश्छल भाव से

निचोड़ पानी कपड़ों से

होता साथ बकरियों के

बादल घिर रहे आकाश में

अतृप्त हैं ये खाइयाँ


पावस में गहन ताप से

सूखी हैं ये, संतप्त हैं,

जल विहीना हैं

बादलों तुम बरसो यहाँ इतना

इस धारा को तृप्त कर दो

नदी काली सिंध पानी से लहलहाए

और ये ढूह

जिसके किनारे बैठा हूँ

आज मैं यहाँ

इस नदी में डूब जाए

होंगे प्रफुल्लित ग्रामवासी

आऊंगा मैं यहाँ फिर

शिशिर और हेमंत में

हरित वृक्ष और पौधों से भरी

देखना चाहता हूँ मैं

" यह धरा "