Last modified on 2 जनवरी 2010, at 20:35

शोक / जय गोस्वामी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:35, 2 जनवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वह जो माँ है, वो‌‍ऽऽ रही
रोकने की कोशिश कर रही है, अपना बलात्कार;
छाती से कसकर चिपकाए हुए, अपना शिशु !

वो रहे... छीनकर उसकी गोद का बच्चा
मुट्ठी में दबोचकर उसका सिर,
दो-ढाई पेंच मरोड़ और तोड़ दी गरदन !
उछाल दिया, उस चरमर गुड्डे को,
नदी के अतल में !
तुम भी देखते रहे, खड़े-खड़े, मैं भी बना रहा दर्शक

इसके बाद, क्या फ़ायदा किसी के पद-त्याग की मांग से?
आज, अगर छीनकर नहीं ला सकते,
मरघट हुए गाँव !
अगर इकट्ठा न कर पाओ , तमाम सूखे हुए आँसू !
अगर... अगर...
चिनगारी बनकर फट न पड़ें
तमाम स्तम्भित शोक !

बांग्ला से अनुवाद : सुशील गुप्ता