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साथी / रामधारी सिंह "दिनकर"

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उसे भी देख, जो भीतर भरा अंगार है साथी।

सियाही देखता है, देखता है तू अन्धेरे को,
किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को।
उसे भी देख, जो इस बाहरी तम को बहा सकती,
दबी तेरे लहू में रौशनी की धार है साथी।

पड़ी थी नींव तेरी चाँद-सूरज के उजाले पर,
तपस्या पर, लहू पर, आग पर, तलवार-भाले पर।
डरे तू नाउमींदी से, कभी यह हो नहीं सकता।
कि तुझ में ज्योति का अक्षय भरा भण्डार है साथी।

बवण्डर चीखता लौटा, फिरा तूफान जाता है,
डराने के लिए तुझको नया भूडोल आता है;
नया मैदान है राही, गरजना है नये बल से;
उठा, इस बार वह जो आखिरी हुंकार है साथी।

विनय की रागिनी में बीन के ये तार बजते हैं,
रुदन बजता, सजग हो क्षोभ-हाहाकार बजते हैं।
बजा, इस बार दीपक-राग कोई आखिरी सुर में;
छिपा इस बीन में ही आगवाला तार है साथी।

गरजते शेर आये, सामने फिर भेड़िये आये,
नखों को तेज, दाँतों को बहुत तीखा किये आये।
मगर, परवाह क्या? हो जा खड़ा तू तानकर उसको,
छिपी जो हड्डियों में आग-सी तलवार है साथी।

शिखर पर तू, न तेरी राह बाकी दाहिने-बायें,
खड़ी आगे दरी यह मौत-सी विकराल मुँह बाये,
कदम पीछे हटाया तो अभी ईमान जाता है,
उछल जा, कूद जा, पल में दरी यह पार है साथी।

न रुकना है तुझे झण्डा उड़ा केवल पहाड़ों पर,
विजय पानी है तुझको चाँद-सूरज पर, सितारों पर।
वधू रहती जहाँ नरवीर की, तलवारवालों की,
जमीं वह इस जरा-से आसमाँ के पार है साथी।

भुजाओं पर मही का भार फूलों-सा उठाये जा,
कँपाये जा गगन को, इन्द्र का आसन हिलाये जा।
जहाँ में एक ही है रौशनी, वह नाम की तेरे,
जमीं को एक तेरी आग का आधार है साथी।

रचनाकाल: १९४६