जन्म
ऊट की पीठ पर अपनी खटिया बाँध कर<br\> चल देंगे अभी बंजारे<br\> दूर तक उनके साथ साथ जायेगी मेरी बेचैन आत्मा.
धूप के साथ सरकती किसी पेड़ की छाँव में<br\> डाल देंगे वे अपना डेरा और पकायेंगे<br\> बाटियाँ और दाल<br\> छाँह के साथ सरकते रहेंगे वे दिनभर<br\> घड़ी की सुइयों के साथ जैसे सरकता रहता है समय.
कितनी अनमोल, कितनी अद्वतीय होती हैं वे साधरण चीजें<br\> जिनके सहारे चलता है यह महाजीवन.
वो छोटी सी काली हंडिया जिसमें पकाई जाती है दाल<br\> और रख ली जाती है जीवन की छोटी छोटी खुशियाँ.<br\> पुराने अखबार का वो कोई छोटा सा टुकड़ा<br\> जिसमें बाँध कर रखा जाता है नमक<br\> इतने सहेज कर रखती है वह बंजारन औरत नमक को<br\> काग़ज में बाँध लिया हो जैसे उसने पूरा अरब सागर.
बंजारों ने अभी डेरा डाला है मेरे घर के ऎन सामने<br\> किसी फल की फाँक की तरह आसमान पर लटका है<br\> कार्तिक की सप्तमी का चाँद<br\> सड़क के एक किनारे, पान की गुमटियों के पीछे<br\> एक छोटे से टाट की आड़ और लालटेन की मद्धिम रोशनी में<br\> बंजारन बहू ने जन्म दिया है अभी अभी<br\> एक बच्चे को!
० अक्टूबर १९८७