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एक दिन / मनीषा पांडेय

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पठानकोट से जाती है जो गाड़ी
कन्‍याकुमारी को
सोचा था एक दिन उस पर बैठूँगी
इस छोर से उस छोर तक
कन्‍याकुमारी से सियालदाह
सियालदाह से जामनगर
जामनगर से मुंबई
मुंबई से केरल
वहाँ से फिर कोई और गाड़ी
जो धरती के किसी भी कोने पर लेकर जाती हो

टॉय टेन पर कालका से शिमला
दिसंबर की किसी कड़कती दोपहरी में जाऊँगी
जब चीड़ की नुकीले दरख़्तों पर
बर्फ़ सुस्ता रही होगी
पहाड़ों और जंगलों से गुज़रेगी गाड़ी
पहाड़ी नदी के साथ-साथ चलेगी

ज़्यादा दूर नहीं तो कम कम से
अपने पूरे शहर का चक्‍कर
तो लगाऊँगी ही एक दिन

अपनी साइकिल पर
पीठ पर एक टेंट लादकर
उस गाँव में जाऊँगी
जहाँ से हिमालय को छूकर देख सकूँ
वहीं पड़ी रहूँगी कई दिन, कई रातें
नर्मदा में तैरूँगी तब
जब सबसे ऊँचा होगा उसका पानी

सोचा तो बहुत
इस सूनसान अकेले कमरे में लेटी
बेजार छत को तकती
आज भी सोचा करती हूँ
धरती के दूसरे छोर के बारे में
जहाँ रात के अन्धेरे में
अचानक बसंती फूल खिल आया है
जहाँ कोई दिन-रात
मेरी राह अगोर रहा है