अपने गाँव के घर में
बरसों के बाद गई थी मैं
और ढूँढ रही थी
बचपन के निशान...
कच्चा घर
बन चुका था पक्का
दीवारों पर चित्रित
हाथी-घोडे़
डोली-कहार
भाग गए थे कहीं...
ताखें गायब थे
जिनपर छिपाकर रख देती थी मैं
गोटियाँ... कौडियाँ
और इकट्ट-टुकट्ट की
लकीरें खीचने के लिए
कोयला-खड़ियाँ
कबाड़ में भी नहीं मिली
पुतरी... कनिया
जिनका धूमधाम से
करती थी ब्याह...
गायब थे मिट्टी के
चूल्हे...बरतन
जिनमें पकाती थी
घास-पात... कंकड़ के ब्यंजन
बाग गायब थे
जिनमें पड़ते थे 'झूले
खेतों में उग आए थे मकान
सूख गया था कुएँ का पानी
छोटी हो गई थी नदी
और बडी़ हो गई थी मैं
बचपन के निशानों के साथ ही
खो गया था मेरा बचपन
जिसे अब भी ढूँढ रही हूँ
स्मृतियों में...।