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शृंगिनी / वीरेन्द्र कुमार जैन

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उन दिगन्तरगामी
पर्वत-शृंगों पर
तुम बैठी
दिखाई पड़ती हो :

तुम
जो कभी नहीं थीं,
अभी नहीं हो,
कभी नहीं हो‍ओगी...

तुम
जो सदा थी,
सदा हो,
सदा रहोगी...

उन दिगन्तरगामी
पर्वत-शृंगों पर
सदा मुझे
तुम्हीं बैठी दिखाई पड़ती हो...।



रचनाकाल : 21 मई 1963, गजपन्थ सिद्धक्षेत्र