उन दिगन्तरगामी
पर्वत-शृंगों पर
तुम बैठी
दिखाई पड़ती हो :
तुम
जो कभी नहीं थीं,
अभी नहीं हो,
कभी नहीं होओगी...
तुम
जो सदा थी,
सदा हो,
सदा रहोगी...
उन दिगन्तरगामी
पर्वत-शृंगों पर
सदा मुझे
तुम्हीं बैठी दिखाई पड़ती हो...।
रचनाकाल : 21 मई 1963, गजपन्थ सिद्धक्षेत्र