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नावें / दिलीप शाक्य

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कितनी नमी थी इबारत में
पढ़ते ही
भीग गईं आँखें

आँखों में फैल गई
झील एक
चल निकलीं यादों की नावें

पानी में पाँव डाल
बैठा रहा समय
किनारे

शाम हुई खुल गईं
परिन्दों की पाँखें

नावों से उतरे मुसाफिर
दूर कहीं
खो गए