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हिजड़े-2 / कृष्णमोहन झा

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वासना की एक विराट गंगा बहती है इस धरती पर
जिसकी शीतलता से तिरस्कृत वे
अपने रेत में खड़े-खड़े
सूखे ताड़-वृक्ष की तरह अनवरत झरझराते रहते हैं

संतूर के स्वर जैसा ही
उनकी चारो ओर
अनुराग की एक अदृश्य वर्षा होती है निरंतर
जिसे पकड़ने की कोशिश में
वे और कातर और निरीह होते जाते हैं

अंतरंगता के सारे शब्द और सभी दृश्य
बार-बार उन्हें एक ही निष्कर्ष पर लाते हैं
कि जो कुछ उनकी समझ में नहीं आता
यह दुनिया शायद उसी को कहती है प्यार

लेकिन यह प्यार है क्या?

क्या वह बर्फ़ की तरह ठंडा होता है?
या होता है आग की तरह गरम?
क्या वह समंदर की तरह गहरा होता है?
या होता है आकाश की तरह अनंत?
क्या वह कोई विस्फोट है
जिसके धमाके में आदमी बेआवाज़ थरथराता है?
क्या प्यार कोई स्फोट है
जिसे कोई-कोई ही सुन पाता है?

इस तरह का हरेक प्रश्न
एक भारी पत्थर है उनकी गर्दन में बँधा हुआ
इस तरह का हरेक क्षण ऐसी भीषण दुर्घटना है
कि उनकी गालियों और तालियों से भी उड़ते हैं खून के छींटे

और यह जो गाते-बजाते ऊधम मचाते
हर चौक-चौराहे पर
वे उठा लेते हैं अपने कपड़े ऊपर
दरअसल वह उनकी अभद्रता नहीं
उस ईश्वर से प्रतिशोध लेने का उनका एक तरीका है
जिसने उन्हें बनाया है
या फिर नहीं बनाया