धनि-धनि भारत आरत के तुम एक मात्र हितकारी ।
धन्य सुरेन्द्र सकल गौरव के अद्वितीय अधिकारी ।।
कियो महाश्रम मातृभूमि हित निज तन मन धन वारी ।
सहि न सके स्वधर्म निन्दा बस घोर विपति सिर धारी ।।
उन्नति उन्नति बकत रहत निज मुख से बहुत लबारी ।
करि दिखरावन हार आजु एक तुमही परत निहारी ।।
दुख दै कै अपमान तुम्हारो कियो चहत अविचारी ।
यह नहिं जानत शूर अंग कटि शोभ बढ़ावत भारी ।।
धनि तुम धनि तुम कहँ जिन जायो सो पितु सो महतारी ।
परम धन्य तव पद प्रताप से भई भरत भुवि सारी ।।