कहो रामजी, कब आये हो
अपना घर दालान छोड़कर
पोखर-पान-मखान छोड़कर
छानी पर लोकी की लतरें
कोशी-कूल कमान छोड़कर
नये-नये से टुसियाये हो ।
गाछी-बिरछी को सूनाकर
जौ-जवार का दुख दूनाकर
सपनों का शुभ-लाभ जोड़ते
पोथी-पतरा को सगुनाकर
नयी हवा से बतियाये हो
वहीं नहीं अयोध्या केवल
कुछ भी नहीं यहाँ है समतल
दिन पर दिन उगते रहते हैं
आँखों में मन में सौ जंगल
किस-किस को तुम पतियाते हो
जाओगे तो जान एक दिन
बाजारों के गान एकदिन
फिर-फिर लौटोगे लहरों से
इस इजोत के भाव हैं मलिन
अभी सुबह से सँझियाए हो ।