Last modified on 4 मार्च 2010, at 16:13

सही भाषा / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:13, 4 मार्च 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी |संग्रह=साथ चलते हुए / वि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अभी-अभी लौटा हूँ उस अंधकार से
जहाँ वे पूछते हैं तुम्हारे शब्दों के अर्थ
उन्हें कैसे समझाता
कि शब्द अर्थ ही होता है
या फिर व्यर्थ होता है।
उन्होंने उन फ़ैसलों को नहीं समझा
जिन्हें तुमने अपनी रोशनी में लिखा था
और वे अपने अंधकार में कराहते हुए ठंडे हो गए
ईश्वर को पुकारते और भद्दी ग़लियाँ बक़ते हुए
तुम मेरी आँखों में अब भी उन्हें देख सकते हो
उनमें वे अनकहे शब्द हैं
जो मरते समय उनकी ज़ुबान पर थे।
तुम चाहो तो उस अन्धकार की ओर लौट सकते हो
जिसमें वे अपने बाल-बच्चों सहित खो गए
उस अंधकार में असंख्य ध्वनियाँ हैं
उस मिट्टी, पानी, धूप, हवा तक पहुँचाने के लिए
जहाँ सही भाषा बनती है
और कोश और परिभाषाएँ।