भाषा की ऊष्मा से फूटते नहीं है शब्द
भीगी पोटली में अब ।
कविता बनाकर मैं मोड़ कर रख देता रहा हूँ
दो दिन में खोल कर पढ़ लेता रहा हूँ
आड़े-तिरछे अँखुए चिटख़ी दरारों में झाँकते मिले हैं ।
आज यह नहीं हुआ
सावधान !
क्या खड़ी बोली में अनजाना शब्द अब
नहीं रहा
जिसको परम्परा देती थी ?