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इन्द्रजाल / कुमार सुरेश

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इंद्रजाल

उसके चेहरे सा चेहरा
पूरी कायनात में नहीं था
मुस्कराहट काला जादू
आँखों से झरता ही रहता था तेज़ नशा
जिसे गुलज़ार ने महकती खुशबू कहा है

सुखद एहसास था वह सुर्ख आग देखना
अच्छा लगता था
उस आंच के पास बैठ गर्माना
जिसके स्फुलिंग इतने चमकीले थे कि
आँखें चौंधियां जाती थीं
यह लपट कुछ इस तरह रचती रही
जीवन का भोला इंद्रजाल
लगा जीवन कि बाज़ी जीत ही ली जाएगी

सप्तवर्णी रंगों वाली यह आग
कौन जादूगर जलाता है ?